मेघों की चाह में
बैचेन धरती आह भर रही है ,
मेघों की चाह में ,,,
चल रही बयार है ,
शरीर सूख गया ,
और चेहरे पर झुर्रियां पड़ने लगीं ,,,
बस धरती तड़प रही है ,
मेघोंकी चाह में ,,,
हर जीव साँस ले रहा है ,
इस नश्वर मृत्तिका की बाँह मैं ,,,
तड़प इस अचला की ,
समझे भी कौन ?
एक आस है मेघों से ,
और समझेगा कौन !
बिचलित हैं बिहंग ,
वृक्षों ने भी , खड़े कर लिए हाँथ ,
वरखा भी मनमतंग है ,
अपने ही राग में ,
बस धरती तड़प रही है,
मेघों की चाह में ,,
कृषकों ने भी छोड़ दिया ,
दमन गाँवों का ,,
जोड़ लिया नाता शहरों की ,
गलियों से ,,
सूख गए सब खेत-खलिहान ,
मेघों की चाह में ,,,
जिधर देखो , बड़ी बड़ी ,
इमारतें पनप रही हैं ,
धरती की गोद में ,
आँचल में , उसके ,
पड़ गईं , दरारें अनेक ,
धरती बस मौन है ,
मेघों की चाह में ,,,,,
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