Sunday, January 26, 2020

surkh syaahi


सुर्ख स्याही 



बड़ी ही बेबाकी से आह  भर रही है ,
किताब के पन्नों की सुर्ख स्याही ,
इतने बरस बीत गए , मगर आज भी वह महक ,
बरक़रार है ,वह खुशबू  , तेरे ज़िक्र  की। 

 ' हमनें तो तुम्हें , जमाने की बंदिशों को ,
लांघकर  स्वीकारा , और तुम एक लफ्ज भी हमे ,
अपना न कह सके '

हमेशा अपनी शर्तों पर जीती रही ,
मगर तुझसे कोई शर्त न रखी। 

ज़िन्दगी एक ढलती शाम बनकर रह गई। 
' अमृता  ' कहती है  '' ये अजनबी तुम मुझे जिंदगी ,
की शाम मैं क्यों मिले , मिलना है तो दोपहर मैं मिलते ''

कभी हम किसी के कैनवास पर उसकी , कल्पना ,
बनकर उकेरे गए ,,,,
कभी सुर्ख स्याही  सी मैं ,,,
कभी उसके कैनवास पर एक रहस्यमयी  लकीर  ,
बनकर रह गई  ,, खामोश सी ,,
और उसे एक टक  देखती रही ,,,
खामोश एक टक  देखते रहना ,
तुम्हें क्या लगता है , कोई सजा है !
यूँ ही निःशब्द तुम्हारे करीब ,
बैठे रहना ही शायद ,
हर मर्ज़ की दवा है ,,,,

आंसुओं से तर , सनी हुई  , मेरी हर शाम ,
गुमशुदाई  की चादर सी तन गई है , मुझ पर ,,
ग़ुम  हो जाना चाहती हूँ  , इस चादर मैं ही लिपटकर ,
सफर मैं अकेले इस तरह , चलने की अब चाह नहीं ,,,,

बेख्याली के लिए  , इतना मशहूर हो गए है ,
हम भी गए ,,,
बस मौन है , कागज कलम ,, और सुर्ख स्याही ,,,,,



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