सुर्ख स्याही
किताब के पन्नों की सुर्ख स्याही ,
इतने बरस बीत गए , मगर आज भी वह महक ,
बरक़रार है ,वह खुशबू , तेरे ज़िक्र की।
' हमनें तो तुम्हें , जमाने की बंदिशों को ,
लांघकर स्वीकारा , और तुम एक लफ्ज भी हमे ,
अपना न कह सके '
हमेशा अपनी शर्तों पर जीती रही ,
मगर तुझसे कोई शर्त न रखी।
ज़िन्दगी एक ढलती शाम बनकर रह गई।
' अमृता ' कहती है '' ये अजनबी तुम मुझे जिंदगी ,
की शाम मैं क्यों मिले , मिलना है तो दोपहर मैं मिलते ''
कभी हम किसी के कैनवास पर उसकी , कल्पना ,
बनकर उकेरे गए ,,,,
कभी सुर्ख स्याही सी मैं ,,,
कभी उसके कैनवास पर एक रहस्यमयी लकीर ,
बनकर रह गई ,, खामोश सी ,,
और उसे एक टक देखती रही ,,,
खामोश एक टक देखते रहना ,
तुम्हें क्या लगता है , कोई सजा है !
यूँ ही निःशब्द तुम्हारे करीब ,
बैठे रहना ही शायद ,
हर मर्ज़ की दवा है ,,,,
आंसुओं से तर , सनी हुई , मेरी हर शाम ,
खामोश एक टक देखते रहना ,
तुम्हें क्या लगता है , कोई सजा है !
यूँ ही निःशब्द तुम्हारे करीब ,
बैठे रहना ही शायद ,
हर मर्ज़ की दवा है ,,,,
आंसुओं से तर , सनी हुई , मेरी हर शाम ,
गुमशुदाई की चादर सी तन गई है , मुझ पर ,,
ग़ुम हो जाना चाहती हूँ , इस चादर मैं ही लिपटकर ,
सफर मैं अकेले इस तरह , चलने की अब चाह नहीं ,,,,
बेख्याली के लिए , इतना मशहूर हो गए है ,
हम भी गए ,,,
बस मौन है , कागज कलम ,, और सुर्ख स्याही ,,,,,
बेख्याली के लिए , इतना मशहूर हो गए है ,
हम भी गए ,,,
बस मौन है , कागज कलम ,, और सुर्ख स्याही ,,,,,
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