सफर
राह मैं मोड़ अनेक हैं ,
पर मंजिल तो एक है ,,,,,,
पंक्षी सा कैद था , पिंजरे मैं ,मन का ,
आज निकला है ,नभ मैं ,
आजादी के तिमिर मैं गुम होकर ,
कभी इस डाल पर , कभी उस डाल पर ,
खेल रहा , चंचल मन से ,
कैसे व्यक्त करूँ ,पंक्षी से ,मन की चंचलता ,
आज मैं आजाद हूँ ,
हर ख्याल भी आजाद है ,
चल पड़े हैं लम्बे सफर पे , तो पहुँचेंगे भी ,
राह मैं मोड़ अनेक हैं ,
पर मंजिल तो एक है ,,,,,,
फिर पैदा हुई ,मन मैं बिड़म्बना ,
उठती एक हिलोर सी ,
घबरा जाता पंक्षी मन का ,उड़ान से ,
फिर मन ही उसको समझाता ,
पंख फैलाये पंक्षी से मन के ,
और कहा , चल उड़ , फिर चलें नील गगन मैं ,
इस पिंजरे की कैद से ,
चल पड़े है लम्बे सफर पे , तो पँहुचेंगे भी ,
राह मैं मोड़ अनेक हैं ,
पर मंजिल तो एक है ,,,,,,,,,,,,
No comments:
Post a Comment