अन्तर्मन
डूब गई , मैं खुद ही , खुद मैं !
कैसे शांत करूँ ?
इस बिचलित बिहंग को !
तड़प उठी , अचला सी मेघों को !
मचल मचल , लहराती ,
शनैः शनैः जलती दीपक की लौ सी !
जलती रही मैं भी
,
,
डूब गई , मैं खुद ही ,खुद मैं,
खोज रही थी ,
खोज रही थी ,
मन की वीणा के तार ,
अपने अंतस मैं बार बार ,
खोज रही थी ,
' मधुर ' श्वर संगीत ,
अनुराग राग , उन्माद भरा ,
विहँस - विहँस बिकलित अंतर्मन ,
छिन्न- भिन्न चितवन , मुर्झा गई कलियाँ ,
सूख गए , सब वन - पराग ,
डूब गई , मैं खुद ही , खुद मैं !
अंतर्मन की इस झंझाबात ने ,
घेर लिया दिग्भ्रान्त ,
नीर भरा , नीरस सा मन ,
सागर सी गहराई ,
कैसे पहुँचु तट तीर ,
खोज रही थी ,
हिय मैं अपने ,अपनी आभा को ,
विधु समान कान्ति हो जिसमें ,
पुनीत पावन सा मर्म ,
खंगाल रही थी ,
सागर मैं मोती ,
डूब गई , मैं खुद ही , खुद मैं !
No comments:
Post a Comment